प्रगतिशील काव्य (Progressive Poetry)
Wednesday, October 18, 2023
गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मिरे दोस्त
Thursday, February 18, 2021
अपनी पीढ़ी के लिए
वे सारे खीरे जिनमें तीतापन है हमारे लिए
वे सब केले जो जुड़वां हैं.
वे आम जो बाहर से पके पर भीतर खट्टे हैं, चूक
और तवे पर सिंकती पिछली रोटी परथन की
सब हमारे लिए.
ईसा की बीसवीं शाताब्दी की अंतिम पीढ़ी के लिए,
वे सारे युद्ध और तबाहियां.
मेला उखड़ने के बाद का कचड़ा-महामारियां,
समुद्र में डूबता सबसे प्राचीन बंदरगाह,
और टूट कर गिरता सर्वोच्च शिखर
सब हमारे लिए.
पोलिथिन थैलियों पर जीवित गौवों का दूध हमारे लिए
शहद का छत्ता खाली
हमारे लिए वो हवा, फेफड़े की अंतिम मस्तकहीन धड़.
पूर्वजों के सारे रोग हमारे रक्त में
वे तारे भी हमारे लिए जिनका प्रकाश अब तक पहुंचा ही नहीं हमारे पास
और वे तेरह सूर्य जो कहीं होंगे आज भी सुबह की प्रतीक्षा में.
सबसे सुंदर स्त्रियां और सबसे सुंदर पुरुष
और वो फूल जिसे मना है बदलना फल में
हमारी ही थाली में शासकों के दांत छूटे हुए
और जरा सी धूप में धधक उठती आदिम हिंसा.
जब भी हमारा जिक्र हो कहा जाए
हम उस समय जिए जब
सबसे आसान था चंद्रमा पर घर,
और सबसे मुहाल थी रोटी.
और कहा जाए
हर पीढ़ी की तरह हमें भी लगा
कि हमारे पहले अच्छा था सब कुछ
और आगे सब अच्छा होगा.
Friday, December 18, 2020
ज़ुल्मत को ज़िया
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना
इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में
इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में
ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम
मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम
हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
लोगों पे ही हम ने जाँ वारी की हम ने ही उन्ही की ग़म-ख़्वारी
होते हैं तो हों ये हाथ क़लम शाएर न बनेंगे दरबारी
इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हक़ बात पे कोड़े और ज़िंदाँ बातिल के शिकंजे में है ये जाँ
इंसाँ हैं कि सहमे बैठे हैं खूँ-ख़्वार दरिंदे हैं रक़्साँ
इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ
जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ
सहरा को चमन बन कर गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो
ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो
विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
--हबीब जालिब
भोजपुरी क्रान्तिकारी गीत
फुलल लाल–लाल छिहुलरिया
रतिया बीत गइल अँधियरिया
अजोरिया रंग बतरावै
बैरा सत–सत जावै
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
कि भौंरा रस में जहर मत घोल–––––2
नीमिया के पेड़वा पे अमर बउरिया
नीमिया गइल पीयराय–––––2
पीपरा के पतिया ने खरकन लागे–––––2
जिनगी गइल बिलाय
कि बगिया अंग सरकावै
पोर–पोर पेड़ दुखिआवै
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
महुआ जो टप–टप चुवै भोरहरिया
अमवा गइल मोजराय–––––2
खून रे पसीनवा से अन–धन जुगतै–––––2
मेहनत जाइ लुटाइ
बदरवा मन बउरावै
बरधा खूँटवा तोरावै
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
मटिया समतजर फसम जनावर
अगिया त लपट बढ़ाय –––––2
अँगना से दुअरा ले रंग एक माटी–––––2
लाल अबीर उड़ाय
कि सुगना सगुन सुनावै
कि अगला दिन परियावै
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
फुलल लाल–लाल छिहुलरिया
रतिया बीत गइल अँधियरिया
अजोरिया रंग बतरावै
बैरा सत–सत जावै
कि भौंरा रस में जहर मत घोल
कि भौंरा रस में जहर मत घोल–––––2
(इस गीत का ऑडियो सुनने के बाद मैंने इसे यहाँ टाइप किया है, कुछ शब्द गलत हो सकते हैं. कृपया उसे सुधारने का सुझाव दें. )
इस कविता का कुछ उपाय करें सरकार!
मैं खुद बहुत भ्रमित हूं आजकल
कहीं निकलता हूं और दुश्मन देश पहुंच जाता हूं!
कहीं दिख जाऊं भटकता संदिग्ध तो मुझे मेरे घर
सुरक्षित पहुंचा देना!
क्योंकि यह जो
कविता है न यह
मुझे दुश्मन देशों के किसी और कवि के आंगन में लेे जाने की साज़िश रचती रहती हैं दिन रात!
कल निकला था ब्रेड लेने भटक कर चला गया पड़ोसी देश
दिन भर फ़ैज़ के घर रहा
शाम को हबीब जालिब के घर
रात होते होते नासिर काज़मी
बहका लेे गए मुझे
सुबह परवीन शाकिर के आंगन में बैठा मिला!
वहां से चला गया मैं जॉन एलिया के गोशे में!
कैसे कैसे करके अपने घर लौटा तो
तो पाया कि फ़ैज़ साहब और फिराक
मेरे घर आए हैं!
जोश और निराला आने वाले हैं
अली सरदार और पंत और नजरुल इस्लाम निकल चुके हैं आने के लिए
जिगर मुरादाबादी और इकबाल के साथ!
फरियाद है!
यह कविता मुझे बरबाद करके रखेगी
कई बार दुश्मन देश के कितने ही कवियों को मेरे आंगन में छोड़ जाती है!
अभी अभी मंटो को रुखसत किया है
बेदी और किशन चन्दर और अश्क लेकर गए
रामानंद सागर के साथ!
या सब के सब
पता नहीं गए कि घर के किसी कोने में रह ही गए हों!
इतने अलगौझे के बाद भी
बंद नहीं हो पा रहा यह आना जाना
कुछ करिए!
इस कविता का कोई उपाय
हे सरकार!
यह पूरे देश को बरबादी की ओर लेे जा रही है हर दिन
हमारे नारे चले जाते हैं पड़ोस के देश
उनके गीत इधर अा जाते हैं
चुपके से!
निर्लज्ज मानते ही नहीं
ढीठ हैं बहुत!
कितने रूसी कितने चीनी कितने अफ्रीकी
कितने तुर्की अरबी यूनानी ईरानी
दुनिया भर के कवि लेखक सिनेमा वाले
संगीतकार गायक पेंटर
सब मेला लगाए रहते हैं
सब मेरे घर में रहते हैं!
जब की नागरिकता इतनी मुश्किल हो गई है
पूरे संसार में
कागज कागज का हल्ला है
मैं संदिग्ध नागरिकता के साथ मारा नहीं जाना चाहता बेगाने मुल्क में।
और यह भी नहीं चाहता की कोई विदेशी कवि लेखक कलाकार मेरे आंगन में गिरफ्तार होकर अभिशप्त जीवन जिए
आपके यातना शिविरों में!
पहरे बढ़ाओ इस कविता पर
इसको रोको
लोगों का रास्ता भुला देती है यह!
इसका कुछ तो उपाय करो सरकार!
--बोधिसत्व, मुंबई