Tuesday, November 22, 2011

नयी नस्ल के नाम

मुझसे नज़रें चुरा कर कहाँ जाओगे
ऐ मेरे आफ़ताबो
राह में रात की बेकराँ झील है
और ऊँची हैं लहरें
असमाने सुख़न के नये माहताबो
तीरगी ढूँढ़ती फिर रही है तुम्हारा पता
और वो सिर्फ़ मैं जानता हूँ
दर्द की शाहरह से गुज़र कर
आँसुओं की नदी के किनारे
ग़म की बस्ती में जो नूर का झोंपडा़ है
उसमें रहते हो तुम
मेरी ही तरह ख़ानः-ख़राबी
सज़िशे कर्गसों की तरह उड़ रही हैं
उनके पर थक के गिर जाएँगे
और तुम्हारी बलन्दी न छू पाएँगे
तुम इसी तरह परवाज़ करते रहोगे
और तुम्हारे परों की चमक
कहकशाँ, कहकशाँ, गीत गाती रहेगी
ऐ मिरे शोलः-पैकर उक़ाबो

अपने लौहो-क़लम तो दिखाओ ज़रा
सच कहो, क्या तुम्हारे तराशे हुए लफ़्ज़ में
मेरी आवाज़ का शाइबः भी नहीं
मेरी आवाज़ जो पहले ग़ालिब की आवाज़ थी
और फिर रूहे-इक़बाल का ज़मज़म बन गई
आज के नग़्मः-ए-शौक़ में ढल गई
सुब्‌हे-फ़र्दा कि वादी में जूए-रवाँ है
मेरी आवाज़
पत्थर में शो’लः है
शो’ले में शबनम
और तूफ़ाँ में तूफ़ाँ
और तुम्हारे भी सीने में उसकी चुभन है
सच कहो
आने वाले ज़माने की रौशन किताबो

मुझसे नज़रें चुराकर कहाँ जाओगे?

-अली सरदार जाफ़री

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