Monday, March 26, 2012

ये क्या हो गया है हमारे शहर को।

जलाते हैं अपने पड़ोसी के घर को
ये क्या हो गया है हमारे शहर को।

समन्दर का पानी भी कम ही पडेगा
जो धुलने चले रक्तरंजित नगर को।

सम्हालो ज़रा सिर फिरे नाविकों को
ये हैं मान बैठे किनारा भँवर को।

मछलियों को कितनी गल़तफह़मियाँ हैं
समझने लगीं दोस्त खूनी मगर को।

दिखा चाँद आरै ज्वार सागर में आया
कोई रोक सकता है कैसे लहर को।

मैं डरता हूँ भोली निगाहों से तेरी
नज़र लग न जाये तुम्हारी नज़र को।

परिन्दो के दिल में मची खलबली है
मिटाने लगे लोग क्यों हर शज़र को।

समन्दर के तूफां से वो क्या डरेंगे
चले ढूंढने हैं जो लालो-गुहर को।

उठो और बढ़ो क्योंकि हमको यकीं है
हमारे कदम जीत लेंगे सफर को।

-वशिष्ठ अनूप

हाँ वहीं मेरा आशियाना है।

बिजलियों का जहाँ निशाना है
हाँ वहीं मेरा आशियाना है।

खूब पहचानता हूँ मैं ग़म को
मेरे घर उसका आना-जाना है।

आँधियाँ तेज़तर हुई जातीं
दीप की लौ को टिमटिमाना है।

शर्त ये है कि लब हिले भी नहीं
और सब हाल भी बताना है।

तेरी मुस्कान है लबों पे मेरे
उम्र भर तुमको गुनगुनाना है।

सारे इल्जा़म मैंने मान लिये
अब तुम्हें फैसला सुनना है।

है यहाँ आज कल कहीं होंगे
हम परिन्दों का क्या ठिकाना है।

खोया-खोया-सा सदा रहता है
उसका अन्दाज़ शायराना है।

-वशिष्ठ अनूप

खेलते मिट्टी में बच्चों की हंसी अच्छी लगी

खेलते मिट्टी में बच्चों की हंसी अच्छी लगी
गाँव की बोली हवा की ताज़गी अच्छी लगी।

मोटी रोटी साग बथुवे का व चटनी की महक
और ऊपर से वो अम्मा की खुशी अच्छी लगी।

अप्सराओं की सभा में चहकती परियों के बीच
एक ऋषिकन्या सी तेरी सादगी अच्छी लगी।

सभ्यता के इस पतन में नग्नता की होड़ में
एक दुल्हन सी तेरी पोशीदगी अच्छी लगी।

दिल ने धिक्कारा बहुत जब झुक के समझौता किया
जु़ल्म से जब भी लड़ी तो ज़िन्दगी अच्छी लगी।

-वशिष्ठ अनूप

गाँव-घर का नज़ारा तो अच्छा लगा

गाँव-घर का नज़ारा तो अच्छा लगा
सबको जी भर निहारा तो अच्छा लगा।

गर्म रोटी के ऊपर नमक-तेल था
माँ ने हँसकर दुलारा तो अच्छा लगा।

अजनबी शहर में नाम लेकर मेरा
जब किसी ने पुकारा तो अच्छा लगा।

एक लड़की ने बिख़री हुई जु़ल्फ़ को
उँगलियों से सँवारा तो अच्छा लगा।

हर समय जीतने का चढ़ा था नशा
अपने बेटे से हारा तो अच्छा लगा।

रेत पर पाँव जलते रहे देर तक
जब नदी ने पखारा तो अच्छा लगा।

एक खिड़की खुली एक परदा उठा
झिलमिलाया सितारा तो अच्छा लगा।

दो हृदय थे उफ़नता हुआ सिन्धु था
बह चली नेह-धारा तो अच्छा लगा।

चाँद-तारों की फूलों की चर्चा चली
ज़िक्र आया तुम्हारा तो अच्छा लगा।

-वशिष्ठ अनूप

Sunday, March 18, 2012

लाल है परचम नीचे हँसिया

लाल है परचम नीचे हँसिया ऊपर सधा हथौड़ा है !
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !!

आधी दुनिया में उजियाली आधी में अँधियारा है
आधी में जगमग दीवाली आधी में दीवाला है,
जहाँ-जहाँ शोषण है बाक़ी वहाँ लड़ाई जारी है
पूरी दुनिया में झंडा फहराने की तैयारी है,
जिसने हमें ज़माने भर के मज़दूरों से जोड़ा है
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !
                       लाल है परचम !!

हमने अपने ख़ून में रंगकर ये परचम लहराया है
इसकी ही किरणों से छनकर लाल सवेरा आया है,
लाखों हिटलर, लाखों चर्चिल, लाखों निक्सन हार गए
सौ-सौ जेट लड़ाकू सारे एटम बम बेकार गए,
हिन्द चीन से हमलावर का नाम मिटाकर छोड़ा है
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !
                       लाल है परचम !!

दहकानों की मीत दराँती फ़सल काट कर घर लाए
मज़दूरों का यार हथौड़ा दुश्मन जिससे थर्राए,
जब इस झंडे के नीचे धरती के बेटे आते हैं
मज़दूरों के चौड़े सीने फ़ौलादी बन जाते हैं
क़दम मिला कर साथ चलें दुश्मन ने मैदां छोड़ा है
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !

लाल है परचम नीचे हँसिया ऊपर सधा हथौड़ा है !
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !!

-कांतिमोहन 'सोज़'

मज़दूर एकता के बल पर

मज़दूर एकता के बल पर हर ताक़त से टकराएँगे !
हर ऑंधी से, हर बिजली से, हर आफ़त से टकराएँगे !!

जितना ही दमन किया तुमने उतना ही शेर हुए हैं हम,
ज़ालिम पंजे से लड़-लड़कर कुछ और दिलेर हुए हैं हम,
चाहे काले कानूनों का अम्बार लगाये जाओ तुम
कब जुल्मो-सितम की ताक़त से घबराकर ज़ेर हुए हैं हम,
तुम जितना हमें दबाओगे हम उतना बढ़ते जाएँगे !
हर ऑंधी से, हर बिजली से, हर आफ़त से टकराएँगे !!

जब तक मानव द्वारा मानव का लोहू पीना जारी है,
जब तक बदनाम कलण्डर में शोषण का महीना जारी है,
जब तक हत्यारे राजमहल सुख के सपनों में डूबे हैं
जब तक जनता का अधनंगे-अधभूखे जीना जारी है
हम इन्क़लाब के नारे से धरती आकाश गुँजाएँगे !
हर ऑंधी से, हर बिजली से, हर आफ़त से टकराएँगे !!

तुम बीती हुई कहानी हो; अब अगला ज़माना अपना है,
तुम एक भयानक सपना थे, ये भोर सुहाना अपना है
जो कुछ भी दिखाई देता है, जो कुछ भी सुनाई देता है
उसमें से तुम्हारा कुछ भी नहीं वो सारा फ़साना अपना है,
वो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएँगे !
हर ऑंधी से, हर बिजली से, हर आफ़त से टकराएँगे !!

-कांतिमोहन 'सोज़'

Friday, March 16, 2012

पतंग

सबसे काली रातें भादों की गयीं
सबसे काले मेघ भादों के गये
सबसे तेज़ बौछारें भादों की
मस्तूतलों को झुकाती, नगाड़ों को गुँजाती
डंका पीटती- तेज़ बौछारें
कुओं और तलाबों को झुलातीं
लालटेनों और मोमबत्तियों को बुझातीं
ऐसे अँधेरे में सिर्फ़ दादी ही सुनाती है तब
अपनी सबसे लंबी कहानियाँ
कड़कती हुई बिजली से तुरत-तुरत जगे उन बच्चोंह को
उन डरी हुई चिड़ियों को
जो बह रही झाड़ियो से उड़कर अभी-अभी आयी हैं
भीगे हुए परों और भीगी हुई चोंचों से टटोलते-टटोलते
उन्होंने किस तरह ढूँढ लिया दीवार में एक बड़ा सा सूखा छेद !

चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं-
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
भूख से
महामारी से
बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें
बच्चों को मारने वाले आप लोग !
एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे
बच्चों को मारने वाले शासकों !
सावधान !
एक दिन आपको बर्फ़ में फेंक दिया जायेगा
जहाँ आप लोग गलते हुए मरेंगे
और आपकी बंदूकें भी बर्फ़ में गल जायेंगी
-आलोक धन्वा

जनता का आदमी

 बर्फ़ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरूद्ध
जलतें हुए गाँवों के बीच से गुज़रती है मेरी कविता;
तेज़ आग और नुकीली चीख़ों के साथ
जली हुई औरत के पास
सबसे पहले पहुँचती है मेरी कविता;
जबकिं ऐसा करते हुए मेरी कविता जगह-जगह से जल जाती है
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दागाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नये मुहावरों का ऑक्सी जन भर रहे हैं,
लेकिन जो कर्फ़्यू के भीतर पैदा हुआ,
जिसकी साँस लू की तरह गर्म है
उस नौजवान खान मज़दूर के मन में
एक बिल्कुल नयी बंदूक़ की तरह याद आती है मेरी कविता।
जब कविता के वर्जित प्रदेश में
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा
जो केवल अपनी सुविधाके लिए
अफ़ीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में-
उस गर्भवती औरत के साथ
जिसकी नाभि में सिर्फ़ इसलिए गोली मार दी गयी
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाय।

सड़े हुए चूहों को निगलते-निगलते
जिनके कंठ में अटक गया है समय
जिनकी आँखों में अकड़ गये हैं मरी हुई याद के चकत्ते
वे सदा के लिए जंगलों में बस गये हैं -
आदमी से बचकर
क्यों कि उनकी जाँघ की सबसे पतली नस में
शब्द शुरू होकर
जाँघ की सबसे मोटी नस में शब्द समाप्त हो जाते हैं
भाषा की ताज़गी से वे अपनी नीयत को ढँक रहे हैं
बस एक बहस के तौर पर
वे श्रीकाकुलम जैसी जगहों का भी नाम ले लेते हैं,
वे अजीब तरह से सफल हुए हैं इस देश में
मरे हुए आदमियों के नाम से
वे जीवित आदमियों को बुला रहे हैं।

वे लोग पेशेवर ख़ूनी हैं
जो नंगी ख़बरों का गला घोंट देते हैं
अख़बार की सनसनीख़ेज़ सुर्खियों की आड़ में
वे बार-बार उस एक चेहरे के पालतू हैं
जिसके पेशाबघर का नक़्शा मेरे गाँव के नक़्शे से बड़ा है।

बर्फीली दरारों में पायी जाने वाली
उजली जोंकों की तरह प्रकाशन संस्थाएँ इस देश कीः
हुगली के किनारे आत्महत्या करने के पहले
क्यों चीख़ा था वह युवा कवि - ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’
-उसकी लाश तक जाना भी मेरे लिए संभव नहीं हो सका
कि भाड़े पर लाया आदमी उसके लिए नहीं रो सका
क्योंकि इसे सबसे पहले
आज अपनी असली ताक़त के साथ हमलावर होना चाहिए।

हर बार कविता लिखते-लिखते
मैं एक विस्फोटक शोक के सामने खड़ा हो जाता हूँ
कि आखिर दुनिया के इस बेहूदे नक़्शे को
मुझे कब तक ढोना चाहिए,
कि टैंक के चेन में फँसे लाखों गाँवों के भीतर
एक समूचे आदमी को कितने घंटों तक सोना चाहिए?

कलकत्ते के ज़ू में एक गैंडे ने मुझसे कहा
कि अभी स्वतंत्रता कहीं नहीं हैं, सब कहीं सुरक्षा है;
राजधानी के सबसे सुर‍क्षित हिस्से में
पाला जाता है एक आदिम घाव
जो पैदा करता है जंगली बिल्लियों के सहारे पाशविक अलगाव
तब से मैंने तय कर लिया है
कि गैंडे की कठिन चमड़ी का उपयोग युद्ध के लिए नहीं
बल्कि एक अपार करूणा के लिए होना चाहिए।

मैं अभी मांस पर खुदे हुए अक्षरों को पढ़ रहा हूँ-
ज़हरीली गैसों और खूंखार गुप्तचरों से लैस
इस व्यवस्था का एक अदना सा आदमी
मेरे घर में किसी भी समय ज़बर्दस्ती घुस आता है
और बिजली के कोड़ों से
मेरी माँ की जाँघ
मेरी बहन की पीठ
और मेरी बेटी की छातियों को उधेड़ देता है,
मेरी खुली आँखों के सामने
मेरे वोट से लेकर मेरी प्रजनन शक्ति तक को नष्ट कर देता है,
मेरी कमर में रस्से बाँध कर
मुझे घसीटता हुआ चल देता है,
जबकि पूरा गाँव इस नृशंस दृश्य, को
तमाशबीन की तरह देखता रह जाता है।
क्योंकि अब तक सिर्फ़ जेल जाने की कविताएँ लिखी गयीं
किसी सही आदमी के लिए
जेल उड़ा देने की कविताएँ पैदा नहीं हुईं।

एक रात
जब मैं ताज़े और गर्म शब्दों की तलाश में था-
हज़ारों बिस्तरों में पिछले रविवार को पैदा हुए बच्चे निश्चिंत सो रहे थे,
उन बच्चों की लम्बाई
मेरी कविता लिखने वाली क़लम से थोड़ी-सी बड़ी थी।
तभी मुझे कोने में वे खड़े दिखाई दे गये, वे खड़े थे - कोने में
भरी हुई बंदूक़ो की तरह, सायरानो की तरह, सफ़ेद चीते की तरह,
पाठ्यक्रम की तरह, बदबू और संविधान की तरह।
वे अभिभावक थे,
मेरी पकड़ से बाहर- क्रूर परजीवी,
उनके लिए मैं बिलकुल निहत्था था
क्योंकि शब्दों से उनका कुछ नहीं बिगड़ता है
जब तक कि उनके पास सात सेंटीमीटर लम्बी गोलियाँ हैं
- रायफ़लों में तनी-पड़ी।
वे इन बच्चों को बिस्तरों से उठाकर
सीधे बारूदख़ाने तक ले जायेंगे।
वे हर तरह की कोशिश करेंगे
कि इन बच्चों से मेरी जान-पहचान न हो
क्योंकि मेरी मुलाक़ात उनके बारूदख़ाने में आग की तरह घुसेगी।
मैं गहरे जल की आवाज़-सा उतर गया।
बाहर हवा में, सड़क पर
जहाँ अचानक मुझे फ़ायर स्टेशन के ड्राइवरों ने पकड़ लिया और पूछा-
आखिर इस तरह अक्षरों का भविष्य क्या होगा ?
आखिर कब तक हम लोगों को दौड़ते हुए दमकलों के सहारे याद किया जाता रहेगा ?
उधर युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
कि अब हम श्मशान में अकाल-मृत्यु के मुर्दों को
सिर्फ़ जलायेंगे ही नहीं
बल्कि उन मुर्दों के घर तक जायेगें।
अक्सर कविता लिखते हुए मेरे घुटनों से
किसी अज्ञात समुद्र-यात्री की नाव टकरा जाती है
और फिर एक नये देश की खोज शुरू हो जाती है-
उस देश का नाम वियतनाम ही हो यह कोई ज़रूरी नहीं
उस देश का नाम बाढ़ मे बह गये मेरे पिता का नाम भी हो सकता है,
मेरे गाँव का नाम भी हो सकता है
मैं जिस खलिहान में अब तक
अपनी फ़सलों, अपनी पंक्तियों को नीलाम करता आया हूँ
उसके नाम पर भी यह नाम हो सकता है।
क्यों पूछा था एक सवाल मेरे पुराने पड़ोसी ने-
मैं एक भूमिहीन किसान हूँ,
क्या मैं कविता को छू सकता हूँ ?
अबरख़ की खान में लहू जलता है जिन युवा स्तनों और बलिष्ठ कंधों का
उन्हें अबरख़ ‘अबरख़’ की तरह
जीवन में एक बार भी याद नहीं आता है
क्यों हर बार आम ज़िंदगी के सवाल से
कविता का सवाल पीछे छूट जाता है ?

इतिहास के भीतर आदिम युग से ही
कविता के नाम पर जो जगहें ख़ाली कर ली जाती हैं-
वहाँ इन दिनों चर्बी से भरे हुए डिब्बे ही अधिक जमा हो रहे हैं,
एक गहरे नीले काँच के भीतर
सुकान्त की इक्कीस फ़ीट लंबी तड़पती हुई आँत
निकाल कर रख दी गयी है,
किसी चिर विद्रोह की रीढ़ पैदा करने के लिए नहीं;
बल्कि कविता के अज़ायबघर को
पहले से और अजूबा बनाने के लिए।
असफल, बूढ़ी प्रेमिकाओं की भीड़ इकट्ठी करने वाली
महीन तम्बाकू जैसी कविताओं के बीच
भेड़ों की गंध से भरा मेरा गड़रिये-जैसा चेहरा
आप लोगों को बेहद अप्रत्याशित लगा होगा,
उतना ही
जितना साहू जैन के ग्ला‍स-टैंक में
मछलियों की जगह तैरती हुई गजानन माधव मुक्तिबोध की लाश।

बम विस्फोट में घिरने के बाद का चेहरा मेरी ही कविताओं में क्यों है?
मैं क्यों नहीं लिख पाता हूँ वैसी कविता
जैसी बच्चों की नींद होती है,
खान होती है,
पके हुए जामुन का रंग होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसी माँ के शरीर में नये पुआल की महक होती है,
जैसी बाँस के जंगल में हिरन के पसीने की गंध होती है,
जैसे ख़रगोश के कान होते हैं,
जैसे ग्रीष्म के बीहड़ एकांत में
नीले जल-पक्षियों का मिथुन होता है,
जैसे समुद्री खोहों में लेटा हुआ खारा कत्थईपन होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसे हज़ारो फ़ीट की ऊँचाई से गिरनेवाले झरने की पीठ होती है ?
हाथी के पैरों के निशान जैसे गंभीर अक्षरों में
जो कविता दीवारों पर लिखी होती है
कई लाख हलों के ऊपर खुदी हुई है जो
कई लाख मज़दूरों के टिफ़िन कैरियर में
ठंढी, कमज़ोर रोटी की तरह लेटी हुई है जो कविता ?

एक मरे हुए भालू से लड़ती रहीं उनकी कविताएँ
कविता को घुड़दौड़ की जगह बनाने वाले उन सट्टेबाज़ों की
बाज़ी को तोड़ सकता है वही
जिसे आप मामूली आदमी कहते है;
क्योंकि वह किसी भी देश के झंडे से बड़ा है।
इस बात को वह महसूस करने लगा है,
महसूस करने लगा है वह
अपनी पीठ पर लिखे गये सैकड़ों उपन्यासों,
अपने हाथों से खोदी गयी नहरों और सड़कों को

कविता की एक महान सम्भावना है यह
कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है-
अपनी टाँग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है,
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और ज़मीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है।
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है,
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
ज़ंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है -
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज़ खोलते हुए।

(1972)
-आलोक धन्वा

गोली दागो पोस्टर

यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमडे का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो-इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !

जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
जहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का
इस्तेमाल होता है

आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है

यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-

एक मूसलधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक

यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है

क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दवात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?

वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ !

सरकार ने नहीं-इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया

बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दरोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोग़ा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं ?

जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं

यह कविता नहीं है
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम क़लम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।

-आलोक धन्वा

Monday, March 5, 2012

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है 

-अदम गोंडवी

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें


लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें


कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें


बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें


गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें
-अदम गोंडवी

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की ,संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की. 

-अदम गोंडवी

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धिखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो. 

-अदम गोंडवी

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को

शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को 

-अदम गोंडवी

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है 

-अदम गोंडवी

घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।

भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।

सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।

बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।

मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।

मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।। 

- अदम गोंडवी

चाँद है ज़ेरे क़दम, सूरज खिलौना हो गया

चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया

ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया

'अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं'
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया.

-अदम गोंडवी

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है
एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है

चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चाँद-सितारे छू आये
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है

मानवमन के द्वन्द्व को आख़िर किस साँचे में ढालोगे
‘महारास’ की पृष्ट-भूमि में ओशो का सन्यास भी है

इन्द्र-धनुष के पुल से गुज़र कर इस बस्ती तक आए हैं
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिन्दास भी है

कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं
स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है. 

-अदम गोंडवी

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में

(1)
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर मेंकोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.


(2) 

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

न इन में वो कशिश होगी , न बू होगी , न रआनाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी कतारों में

अदीबो ! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में

रहे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तजरबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में

कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में.

-अदम गोंडवी

काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में 

-अदम गोंडवी

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साये में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी

रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी

दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी. 

-अदम गोंडवी